Friday, January 7, 2011

उन हसीनों में

रची है रतजगो की चाँदनी जिन की जबीनों में.
"क़तील" एक उम्र गुज़री है हमारी उन हसीनों में..
वो जिन के आँचलों से ज़िन्दगी तख़लीक होती है.
धड़कता है हमारा दिल अभी तक उन हसीनों में..
ज़माना पारसाई की हदों से हम को ले आया.
मगर हम आज तक रुस्वा हैं अपने हमनशीनों में..
तलाश उनको हमारी तो नहीं पूछ ज़रा उनसे.
वो क़ातिल जो लिये फिरते हैं ख़ंज़र आस्तीनों में..

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