Sunday, February 6, 2011

विरह की बेबसी

"अब आ भी जाओ,ये तन्हाई रुलाती है हमें !
विरहा में सर्द हवा और सताती है हमें !
तड़प के-डर से, तेरे खवाबों से बचना चाहा!
नींद में घेर न लें, रात भर जगना चाहा!
...बंद दरवाजा, फिर खिड़की पर परदे ढक कर ,
पलक दबाने को उनपर हाथ जो रखना चाहा!
बस यही बात तो अग्नि में जलाती है हमें!
हाथ की अंगूठी तेरी याद दिलाती है हमें!

अब आ भी जाओ,ये तन्हाई रुलाती है हमें.............................

तड़प के डर से ये, काम भी करना चाहा!
धोये कपड़े,तो कभी गेंहू फटकना चाहा!
काम निबटाये, पानी भरके फिर नहाकर के,
सुखाके बाल, भीगे वस्त्र बदलना चाहा!
बस यही बात तो लज्जा में डूबाती है हमें!
उनकी तस्वीर आईने में, नज़र आती है हमें!


अब आ भी जाओ,ये तन्हाई रुलाती है हमें.............................

तड़प के डर से चेहरा भी पलटना चाहा!
भागकर, दौड़कर कमरे से निकलना चाहा!
धूप की आंच में कपड़ो को सुखाने के लिए,
मैंने सीढ़ी से अपनी छत्त पर पहुंचना चाहा!

"देव" ये बात तो लज्जा में डुबाती है हमें!
उनकी चिठ्ठी लिए, मेरी सास बुलाती है हमें!


"" प्रेम के लिए किसी इंसान का प्रत्यक्ष होना जरुरी नहीं, प्रेम तो परोक्ष रूप से भी किया जाता है! तो आइये विरह के इन नाजुक लम्हों की प्राप्ति को प्रेम करैं.

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