Wednesday, February 6, 2013

कितनी गिरहें खोली हैं मैने


कितनी गिरहें खोली हैं मैने
कितनी गिरहें अब बाकी हैं

पाँव  मे पायल,बाँहों में कंगन 
गले में हँसली ,कमरबंद च्हहले और बिछुए
नाक कान छिदवायें गये हैं  
और सेवर जेवर कहते कहते 
रीत रिवाज की रस्सियों से मै जकरी गयी 
उफ्फ !!कितनी तरह मै पकड़ी गयी 
अब छिलने  लग है हाथ पांव 
और कितनी खरासें उभरी हैं 
कितनी गिरहें हैं खोली है मैंने 
कितनी रस्सियाँ उतरी है 


अंग अंग मेरा रूप रंग
मेरे नक़्श नैन, मेरे भोले बैन
मेरी आवाज़ मे कोयल की तारीफ़ हुई
मेरी ज़ुल्फ़ शाम, मेरी ज़ुल्फ़ रात
ज़ुल्फ़ों में घटा, मेरे लब गुलाब
आँखें शराब
गज़लें और नज़्में कहते कहते
मैं हुस्न और इश्क़ के अफ़सानों में जकड़ी गयी

उफ़्फ़ कितनी तरह मैं पकड़ी गयी...

मैं पूछूं ज़रा, मैं पूछूं ज़रा
आँखों में शराब दिखी सबको, आकाश नहीं देखा कोई
सावन भादौ तो दिखे मगर, क्या दर्द नहीं देखा कोई
क्या दर्द नहीं देखा कोई

फ़न की झीनी सी चादर में
बुत छीले गये उरियानि के
तागा तागा करके पोशाक उतारी गयी
मेरे जिस्म पे फ़न की मश्क़ हुई
और आर्ट-कला कहते कहते
संगमरमर मे जकड़ी गयी

उफ़्फ़ कितनी तरह मैं पकड़ी गयी...

बतलाए कोई, बतलाए कोई
कितनी गिरहें खोली हैं मैने
कितनी गिरहें अब बाकी हैं

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